Thursday, November 26, 2009

उर्दू में होती यदि गीता, संस्कृत में पाक कुरआन!!!

मन्दिर में रहते यदि अल्ला, मस्जिद में रहते भगवान!
तब क्या कम हो जाता मान?

अगर मौलवी पढ़ते गीता, पंडित पढ़ते पाक कुरआन!
क्या वे कहलाते अज्ञान?

उर्दू में होती यदि गीता, संस्कृत में पाक कुरआन
तब क्या करता कोई अपमान?

मुस्लिम भजन-कीर्तन करते हिंदू देते अगर अजान!
तब क्या कम होते गुणगान?


बन्दा तू अल्ला का भी है तुझे प्यार करते भगवान्
ना ही हिन्दू ना ही मुस्लिम 'शिशु' तो हैं सब एक समान।
इतना जान! बस इतना जान!

Tuesday, November 24, 2009

अब दहेज़ की प्रथा गाँव में इतनी बढ़ गई ज्यादा...,

अब दहेज़ की प्रथा गाँव में इतनी बढ़ गई ज्यादा,
नर तो मान भी जाते लेकिन नही मानती मादा
बोली सास, साज सज्जा का ध्यान बराबर रखना,
शादी से पहले का वादा ध्यान बराबर रखना
टी.वी., फ्रिज, एसी तुम देना गाँव में बिजली आयी,
टी.वी पर देखी मशीन एक वो भी मन को भायी।
चैन बिना ना चैन मिलेगा, हार बिना तुम समझो हार,
एक लाख कैश दे देना जब बारात पहुंचेगी द्वार।
चार जमाई चार लड़कियां सबको कपड़े लाना।
बिन ब्याही छोटे लडकी को सूट फैंसी लाना।
मुझे बनारस वाली साड़ी इनको लाना सूट,
सब बच्चो को कोट पैंट और साथ में बूट।
मोटर साईकिल मांग रहा दुल्हे का छोटा भाई,
सुनकर ये लडकी वालों के तब जां आफत में आयी।
ससुर बोलता मैं क्या बोलूँ, मेरी चलती ये ना लेता,
एक कार दो लाख साथ में उससे काम चला लेता।
'शिशु' कहें हालात दोस्तों इतने बिगड़ रहे
इस दहेज़ के चक्कर में घर कितनो के उजड़ रहे।

Thursday, November 19, 2009

'शिशु' कहें सब लोग काश धन्ना काका से होते...,

धन्ना सेठ पधारे दिल्ली धन-दौलत के चक्कर में,
पूँजी सभी लगाई उसने महंगी जो है शक्कर में।

उधर खरीदी सदर मार्केट इधर बेंच दी फुटकर,
बेटे-बाप सभी धंधे में लगे हुए हैं डटकर।

पिता हमारे बतलाते हैं उनका नमक का धंधा था,
पैसा उससे बहुत बनाया जबकि नमक तब मंदा था।

बीस साल हो गए गाँव से जब वो आए दिल्ली,
सभी गाँव वालों ने उनकी तब उडाई थी खिल्ली।

धन्ना सेठ गाँव में अब हैं सबसे पैसे वाले,
गाँव में महल खड़ा हैं उनका जंहा जड़े हैं ताले।

दिल्ली में भी कोठी उनकी अच्छे दो हैं बंगले,
पर धन्ना के नज़रों में धन्ना अब भी कंगले।

जो भी गाँव से आता, पहले धन्ना के घर जाता,
खाने-पीने-रहने की सारी सुविधा पा जाता।

धन्ना के घर वाले सारे गरमी में घर जाते,
सारे गाँव को उसदिन वो महंगी दावत करवाते।

'शिशु' कहें सब लोग काश धन्ना काका से होते,
दौलत वाले होकर भी वो नही घमंडी होते।

Tuesday, November 17, 2009

पिल्ला पाल रहे लोगों से विनती एक है मेरी....

पिल्ला पाल रहे लोगों से विनती एक है मेरी,
टीके सब उनको लगवाएं बिना लगाये देरी।

पार्क जाएँ पिल्ले ना लेकर ना सडकों पर खुल्ला छोड़ें,
भाग रहा यदि पिल्ला है तो पीछे-पीछे ख़ुद भी दौड़ें।

अच्छी बात और होगी यदि पिल्ला देसी पालें,
बाँध चैन से उस पिल्ले को उसमे ताला भी डालें।

पिल्ला धोके से यदि काटे किसी व्यक्ति को भाई,
डाक्टर को फिर उसे दिखाएँ स्वयं दिलाएं दवाई।

अन्तिम एक गुजारिश ये है पिल्ला घर पर ही रखें
इधर-उधर न करे वो पोट्टी इसका ध्यान सदा रखें।

Thursday, November 5, 2009

नही रहे प्र भाष जोशी जी सुबह सबेरे पढ़कर जाना,


नही रहे प्र भाष जोशी जी सुबह सबेरे पढ़कर जाना,
पढी ख़बर बा मगर ये ख़बर को सच मैंने माना
हिन्दी के लेखन में जिसने पूरा जीवन किया समर्पित
ऐसे भीष्म पितामह को है बहुत बहुत मेरा अभिनन्दन



किसी को यकींन नहीं हो रहा है कि कल रात तक लोगों से बात करने वाले प्रभाष जोशी नहीं रहे ।

प्रभाष जोशी दैनिक जनसत्ता के संस्थापक संपादक से पहले नयी दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। नयी दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला। 1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसने हिन्दी पत्रकारिता की दिशा और दशा ही बदल दी। 1995 में इस दैनिक के संपादक पद से रिटायर्ड होने के बावजूद वे एक दशक से ज्यादा समय तक बतौर संपादकीय सलाहकार इस पत्र से जुड़े रहे। प्रभाष जोशी हर रविवार को जनसत्ता में कागद कारे नाम से एक स्तंभ लिखते थे। बहुत से लोग इसी स्तंभ को पढ़ने के लिए रविवार को जनसत्ता लेते हैं।

हिन्दी पत्रकारिता में हजारो ऐसे पत्रकार हैं, जो उन्हें अपना आदर्श मानते हैं । सैकड़ों ऐसे हैं, जिन्हें प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता का पाठ पढ़ाया है । दर्जनों ऐसे हैं, जो उनकी पाठशाला से निकलकर संपादक बने हैं लेकिन एक भी ऐसा नहीं, जो प्रभाष जोशी की जगह ले सके ।

उन्हें क्रिकेट से उन्हें बेहद लगाव था । इतना लगाव कि को वो कोई मैच बिना देखे नहीं छोड़ते थे और मैच के एक - एक बॉल की बारीकी पर लिखते भी थे, और देखिए मैच देखते हुए ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वो हिन्दी पढ़ने और लिखने वालों से सदा-सदा के लिए जुदा हो गए

Tuesday, November 3, 2009

खेल-खेल में दिल्ली 'दिल्ली रानी' कहलाएगी...

खेल-खेल में दिल्ली, 'दिल्ली रानी' कहलाएगी,
शीला दिक्षित जी कहती हैं तभी विश्व को भायेगी।
अभी जहाँ कचरा-कूड़ा है उसमे फूल खिलाएंगे,
भागीदारी के माध्यम से हरियाली बिखराएंगे।
यमुना भी तब साफ़-सफाई का प्रतीक बन जायेगी,
बिजली भी तब हर घर में २४ घंटे आयेगी।
नयी-नयी बस चल जायेंगी शोर-शराबा ना होगा,
फ्लीओवर बन जाने से फिर ट्राफिक भी कम ही होगा।
मैट्रो ट्रेन चलेगी पल-पल ट्राफिक से होगा छुटकारा,
अभी जहाँ ना कोई साधन तब होगा कुछ नया नज़ारा।
इसे देख शिशु' करे प्रार्थना प्रभु हों गाँव हमारे खेल,
इसी खेल के चक्कर में ही चल जाए लोकल ही रेल।

'शिशु' कहें गाँव की बड़ी याद सताती...

मन करता है गाँव को जाऊं, खेलूँ अट्टी-डंडा
शकरकंद संग मट्ठा पियूँ रस गन्ने का ठंडा
रस गन्ने का ठंडा और ईख के खेत को जाऊं
बैठ के खेत मचान जी भर कर गन्ने खाऊं
'शिशु' कहें गाँव की बड़ी याद सताती।
दिन हो या फिर रात बराबर मुझे सताती।

'शिशु कहें लोग क्यूँ है इतने बदमाश.......

शहरी लोग पूछते उससे बे क्यूँ तू आया दिल्ली,
पूछ-पूछ कर उसकी वो सब खूब उड़ते खिल्ली,
खूब उड़ाते खिल्ली खासकर गूजर जाट,
बसों के कंडक्टर भी उसको खूब पिलाते डांट
कल 'शिशु' ने मजाक में पूछा क्यूँ रोता भाई,
बोला छोटू भइया मुझको दिल्ली नही रास आयी।

रोते-रोते छोटू बोला मुझको लोग चिढ़ाते,
जब होता मैं ही दूकान पर तब सब वो आ जाते,
तब सब वो आ जाते और फरमाते गाऊँ गाना,
चलते - चलते और पूछते कब होगा तेरा जाना,
'शिशु कहें लोग क्यूँ है इतने बदमाश,
जाने क्यूँ आते हैं वो भोले राजू के पास