Saturday, November 29, 2008

आतंक, दहशतगर्दी वो सिर्फ़ जेहाद के लिए करते हैं.....

इस समय जो परिस्थिति है
हमारे देश की जो स्थिति है
वही हमारे पड़ोसी मुल्क की है
फिर भी उसके दिमाग की बत्ती गुल है

हम परेशान हैं कि हर बार की तरह इस बार भी,
हमारे देश को ही क्यूँ चुना?
वो भी हैरान हैं कि हर बार की तरह इस बार भी,
हमारे देश का ही नाम क्यूँ चुना?

वो कहते हैं कि हमारे देश को बदनाम क्यूँ करते हो?
हम कहते हैं कि हमारे देश में ही क्यूँ तुम यह काम करते हो?
वो कहते हैं कि हमें पता नही कि दहशतगर्द कंहा रहते,
हम कहते हैं कि एक बार आने दो हमें,
हम पता कर लेंगे कि वो कंहा - कंहा नही रहते!

आतंक, दहशतगर्दी वो सिर्फ़ जेहाद के लिए करते हैं
हम बार बार उनसे प्रार्थना करते हैं
क्या खुदा इसी से खुश होगा?
तुम्हे इसके बदले दुआ में क्या - क्या देगा?

अब इससे पहले खुदा उन्हें कुछ दे
हम प्रार्थना के बदले उन्हें मौत देंगे
'शिशु' इस देश की बात नही करते
पुरे विश्व में दहशतगर्दों को सख्त सज़ा देंगे

दफ़न न होते आज़ादी पर मरने वाले

दफ़न न होते आज़ादी पर मरने वाले,
पैदा करते हैं मुक्ति बीज,
फिर और बीज पैदा करने को,
जिसे ले जाती हवा दूर,
और फिर बोती है,
और जिसे पोषित करते हैं
वर्षा, जल और हिम!
देहमुक्त जो हुआ,
आत्मा उसे न कर सके विछ्न्न,
अस्त्र - शस्त्र अत्याचारों के,
बल्कि हो अजेय रमती धरती पर,
मर्मर करती बतियाती चौकस करती !!
(यह कविता भगत सिंह की आत्मकथा में संगृहीत है )

Friday, November 28, 2008

पप्पू नही कहाऊंगा

मौसम सर्द है
सर में कुछ कुछ दर्द है
फिर भी वोट डालने जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा

कमीशन ने समझाया है,
मेरे दिमाग में आया है
हर बना मै पप्पू
इस बार नही बन जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा

सुबह बिना कुछ खाए
और बिना ही नहाये
मोर्निंग वाल्क न जाऊंगा
बूथ की दौड़ लगाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा

कोई जीते कोई हारे
फर्क नही कुछ भी पड़ता
लेकिन ये सच है भाई
हर दम यही ख्याल रहता
ख़त्म इलेक्शन जैसे होगा
हलुआ पुरी खाऊँगा
पर पप्पू नही कहाऊंगा

Thursday, November 27, 2008

पापी मैं नहीं, पापी मेरा पेट है

गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-
विवाह काले रति संप्रयोगे प्राणाताये सर्वधनापहारे।
विप्रभ्य चार्थे ह्यन्नुतम वदते पक्षी वृतान्यत्नूर।।

अर्थात विवाह के बाद रतिक्रीडा, प्राणवियोग (आत्महत्या) और सर्व स्वापहरण (खुद का धन चुराने) के समय तथा ब्राहम्ण के निमित्त (नियमित) मिथ्या प्रयोग करने से पाप नहीं लगता।

कहा जाता है कि इस दुनिया संसार कोई भी दूध का धुला नहीं है। हर मनुष्य पापी है। फिर चाहे वह राजा हो या रंक। हां पाप करने के तरीके हर किसी के अपने-अपने हैं। और इन किये गये पापों के परिणाम भी अलग अलग तरह के हैं। हर कोई पाप किसी न किसी प्रयोजन के लिए ही करता है। धनीवर्ग पाप करता है पूंजी जमा करने के लिए, नाम के लिए, शोहरत के लिए और ऐशो-आराम के लिए। बाबा लोग पाप के भागीदार बनते हैं पुण्य कमाने के लिए। नेता पाप करते हैं कुर्सी पाने के लिए और राजनेता पाप करते हैं इतिहास दोहराने के लिए। इसी तरह आतंकवादी पाप करते हैं भगवान को खुश करने के लिए अर्थात जेहाद के लिए। हां, आम आदमी का पाप केवल पापी पेट को पालने के लिए होता है। कहने का तात्पर्य यह कि इस पाप की दुनिया में हर कोई पापी है आम आदमी से लेकर खास आदमी तक। भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी, चोरी-चकारी, क्या है? पाप है और क्या? लेकिन फिर भी लोग किये जा रहे हैं।

पिता, माता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, कन्या, भार्या, स्वामी, कुटुम्ब के लिए मनुष्य सदियों से पाप करता आ रहा है। किसलिए इसी पापी पेट के लिए। इसी पापी पेट की खातिर आर्य लोग चार श्रेणियों में विभक्त हुए - ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वै’य और शूद्र। यहां शूद्र सबसे निचनी श्रेणी के पापी हैं। इसलिए तब से अब तक सबसे ज्यादा पाप के भागीदार यही लोग हैं। ऐसा शास्त्रों में लिखा है। कहा तो यहां तक जाता है कि पहले के समय यदि मनुष्य समुद्र यात्रा करे तो वह पाप का भागीदार माना जाता था, तो क्या मनुष्य ने समुद्र के रास्ते से यात्रा नही की। की है, किसलिए इसी पापी पेट के लिए।

गीता में जब अर्जुन अपनों के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए तैयार नहीं होते तो श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश दिया। हे पार्थ धर्म की रक्षा करने के लिए अपने सगे-संबंधियों का वध करोगे तो तुम्हें पाप नहीं लगेगा। यहां पर अर्जुन का उस समय धर्म क्या था? यही कि अपने भाइयों और सगे-संबंधियों का पेट पालन और कोई दूसरा धर्म तो हमें दिखाई नहीं देता। तो क्या श्रीकृष्ण ने पाप की शिक्षा अर्जुन को नहीं दी, ऐसा कहने से हम विर्धमी कहलाये जायेंगे और पाप की श्रेणी में आ जायेंगे। इसलिए मैं ऐसा पाप नहीं करना चाहता।

जो भी हो मनुष्य जीवन चिरकाल से ही पाप की गठरी से परिपूर्ण है। फिर आप भी हमसे पूछेंगे कि ‘तू क्या पापी नहीं है, इसका मतलब तू भी पापी है।’ जनाब उस समय तो मैं यही कहूंगा कि पापी मैं नहीं पापी मेरा पेट है।

Wednesday, November 26, 2008

तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है!

तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है,
अफसोस?
मेरे दोस्त,
इस शेखी में दम नहीं है
जो शामिल होता है फर्ज की लड़ाई मे,
जिस बहादुर लड़ते ही हैं,
उसके दुश्मन होते ही हैं
अगर नहीं है तुम्हारे,
तो वह काम ही तुच्छ हैं,
जो तुमने किया है,
तुमने किसी गद्दार के कूल्हे पर वार नहीं किया है।
- भगत सिंह (ये कविता भगत सिंह एक जीवनी से ली गई है)

रोजी-रोटी के लिए पलायन से बढ़ रही है शहरी गरीबी

गरीबी की पहचान को लेकर व्यापक बहस चल रही है। सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि गरीबी कम हुई है। इसके लिए आंकड़े तक सरकार द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे हैं। लेकिन इसके विपरीत स्वयंसेवी संस्थाओं की माने तो गरीबी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ी है। हालांकि पहले गरीबी केवल गावों में ही देखी जाती थी लेकिन अब गरीबी शहरों में ज्यादा है। इन स्वयंसेवी संस्थाओं की बातों पर गौर करें तो गांव के गरीबों की तुलना में शहरी गरीबी की हालत ज्यादा ही दयनीय है। ऐसा माना जाता है कि गरीबी तुलनात्मक आधार पर आंकी जाती है। जहां अमेरिका में दैनिक पारिवारिक आय 20 डालर या 800 रूप्ये प्रतिदिन हो तो वह गरीब माना जाता है। हमारे देश में महानगरों में फ्रिज और टीवी एवं पंखे के साथ झुग्गी में रहने वाले परिवार को गरीब माना जाता है। वहीं गावां में बिना फ्रिज, टीवी और कूलर के पक्के मकान में रहने वाला परिवार समृद्ध परिवार की श्रेणी में गिना जाता है। कुछ भी हो भुखमरी और गरीबी से त्रस्त लगभग 80 हजार लोग हर महीने काम के अभाव में पेट की आग बुझाने के लिये महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। शहरी गरीब परिवारों की काफी संख्या सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों जैसे अनुसूचित जाति ओर अन्य पिछड़ी जातियों में से है।

इस बढ़ती शहरी गरीबी पर गौर करें तो देखेंगे कि अब पहले की तुलना में शहरों की तरफ गरीबों का पलायन ज्यादा बढ़ा है। जहां पहले गावों में छोटे-छोटे उद्योग जो उनके लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते थे, कम हो रहे हैं। गांधी जी के चरखों का प्रचलन कम हो रहा है। ये चरखे जहां पहले उन्हें पैसे के अलावा ओढ़ने और पहनने के लिए कपड़े भी उपलबध कराते थे अब लगभग बंद ही हो गये हैं। सनई के बान जिनसे चारपाई बुनी जाती थी, अब लगभग समाप्त ही हो गये हैं। सिलाई का काम करने वाले ज्यादातर लोग मुस्लिम समुदाय के होते थे, उनकी सिलाई मशीने बंद हो गयी हैं। इन सिलाई मशीनों की जगह पर अब सिले-सिलाये कपड़ों ने ले लिया है। इसलिए उनका पलायन भी शहरों की ओर बढ़ रहा है।


बिहार में आयी इस बार की बाढ़ जिसे वहां के गरीब लोग दैवी आपदा मानते हैं, के कारण उनके घरों के चुल्हें ठंडे कर दिये। ऐसे लोग बाध्य होकर पेट की ज्वाला बुझाने के लिए भूख से तड़पते परिवारीजनों को लेकर महानगरों को कूच कर रहे हैं।


गरीबों का शहरों की ओर पलायन का यही एक मुख्य कारण है। ऐसा नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि अब पहले की तुलना में गावों में शिक्षा का स्तर सुधरा है। वहां के युवा शिक्षित होकर काम के तलाश में शहरों की तरफ रूख करते हैं।


इस बढ़ते पलायन को बढ़ावा देने में हमारा मीडिया और टीवी जगत का भी बहुत बड़ा योगदान है। उसने फिल्मी दुनिया की चकाचौध कुछ इस तरह से दिखाई है कि गांव का युवावर्ग जींस और टी’ार्ट पहनने के चक्कर में गावों से शहरों की तरफ खिचें चले आ रहे हैं।


जलवायु परिवर्तन भी गरीबी को बढ़ाने में अपना काम कर रही है। इसका सीधा असर खेती पर देखा जा रहा है। जिन इलाकों में पहले बारिस होती थी वहां सूखा पड़ रहा है और जहां सूखा था वहां बारिस हो रही है जिसके कारण खेती की फसल बेकार हो रही है। इस तरह खेती की दयनीय स्थिति को देखकर गांव के ज्यादातर लोग शहरों में पलायन कर रहे हैं।

जो भी हो यह तो स्पष्ट है कि इस पलायन ने शहरों में गरीबी के आंकड़ों को गावों की तुलना में बढ़ाया है। जिससे शहरों में रोजगार की कमी हो रही है। इस बढ़ती शहरी गरीबी को कम करने के लिए सरकार समय-समय पर संगोष्ठियां, सेमिनार आयोजित करता रहता है। आज विश्व के ज्यादातर महत्वपूर्ण निर्णय, खासकर, के आर्थिक नीतियों से सम्बन्धित, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, पूँजीपतियों - औद्योगिक घरानों के दबाव में या उनके पक्ष में लिए जा रहे हैं। और ये संस्थान गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए विकासशील देशों पर अपने दबाव डालते हैं। वर्तमान सरकार ने ग्रामीण गरीब अकुशल मजदूरों के लिए करीब एक वर्ष पहले राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया। सरकारी योजनाओं की तरह राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में अनियमितताएँ व भ्रष्टाचार नहीं होगा आखिर इसकी क्या गारंटी है। दूसरी बात यह कि क्या 100 दिन के रोजगार से गावों से पलायन करने वालों की कमी होगी? ऐसी योजनाएं क्या गावों के गरीबों को पलायन रोकने में सहायक साबित होंगी अभी से कहना ठीक नहीं होगा।

Sunday, November 23, 2008

इसीलिये देलही में सिक्को की कमी है.... !

आजकल मार्केट में सिक्को की कमी देखी जा रही है। हर कोई इन सिक्को को लेकर परेशान है. देलही की बसों का तो और भी बुरा हाल है. वंहा पर बस कंडेक्टर और यात्रियों के बीच कहा सुनी से लेकर मारपीट तक की नौबत आ जाती है. मार्केट में इन सिक्को के कारण उपभोक्ताओं को सामान एक - दो रूपये का ज्यादा खरीदना पड़ रहा है.

इन सिक्को की कमी का कारण आम आदमी के समझ से परे है। वो तो पहले ही रुपये की कमी से परेशान हैं. एक तो तन्खवाह नही मिल रही दूसरी तरह चीजो के दाम इतने बढ़ गए हैं की तंगहाली की नौबत आ गई है. एक तो महगाई और ऊपर से चुनाव सोने पर सुहागा है. उसपर से इन सिक्कों की कमी. और कारणों को समझाना थोड़ा कठिन है लेकिन सिक्को की कमी की बात अब समझ में आ रही है.

दरअसल चुनावी समर को भुनाने के लिए जब से नेताओं में खुद को सिक्कों में तौलवाने की होड़ लगी है तब से देलही में सिक्के जैसे गायब ही हो गए हैं। सिक्के तौलने वालों की जैसे लाटरी लग गई है। नेताओं को तौलने के लिए न केवल अब किराए पर तराजू मिल रहे हैंए बल्कि हजारों का कारोबार शुरू हो चुका है। इन दिनों में एक आध लोग तो दुकानदारों को सिक्कों की सप्लाई का काम करते हैं रोजाना दो से चार नेताओं द्वारा तराजू बुक कराया जा रहा है। नेताजी भी किराए के तराजू व सिक्कों में खुद को तौलवा कर इतराते नहीं थकते।

जो भी हो इतना तय है की चुनाव आते ही आम जनता की मुश्किलें बढ़ जाती हैं. कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं. की देलही में मिठाई के दुकानों में लड्डुओं की भारी कमी है. क्यूंकि कुछ नेता तो अपने को लड्डुओं से भी तुला रहे हैं. मिठाई बेंचने वाले खुश हैं लेकिन खाने वाले नाखुश. सीधी सी बात यह है इन के चक्कर में हम जैसे लोग जो बसों में सफर करते हैं परेशान हैं वो परेशान वो लोग भी हैं जो लड्डू खाने के शौकीन हैं. नही तो नेताओं और दूकानदारों के दोनों हाथों में लड्डू तो हैं ही.

Thursday, November 20, 2008

धन, स्वास्थ्य और सदाचार में सबसे बड़ा कौन?

निबंध : धन, स्वास्थ्य और सदाचार में सबसे बड़ा कौन?


स्कूल के दिनों में हमारे गाँव में दीवालों पर ये पंक्तियाँ लिखीं होती थीं:-

धन यदि गया, गया नहीं कुछ भी,

स्वास्थ्य गये कुछ जाता है।

सदाचार यदि गया मनुज का

सब कुछ ही लुट जाता है।


ऐसे ही कुछ दोहे बालिका विद्यालय की दीवाल पर भी लिखे हुए देखे थे, 

"धन-बल, जन-बल, बुद्धि अपार।

सदाचार बिन सब बेकार।"

इन दोहों का तब के समय में मनुष्यों पर क्या असर पड़ता था या उस समय इसके क्या मायने थे, यह बताना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि वे हमारे बचपन के दिन थे। लेकिन अब इनका अर्थ बदला है। अब सदाचार के मायने क्या रह गये हैं हम सभी के सामने हैं। इसके अर्थ को समझने के लिए मैंने इसे तीन भागों में विभाजित किया है। पहले हम सदाचार की बातें करेंगे फिर स्वास्थ्य की और आखिर में धन की।


सदाचार:-

ऐसा समझा जाता है कि यदि मनुष्य सदाचारी है तो उसका जीवन सफल है। सदाचारी व्यक्ति दूसरों की नज़र में हमेशा प्रसिद्धि पाता है। लोग उसकी बढ़ाई करते हैं। उसके गुणगान करते हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. रामचरण महेन्द्र जी ने सदाचार की परिभाषा कुछ इस प्रकार से की है-‘‘सदाचार ही सुख-सम्पत्ति देता है। सदाचार से ही यश बढ़ता है और आयु बढ़ती है। सदाचार धारण करने से सब प्रकार की कुरूपता का नाश होता है।’’


सदाचार हमें विरासत में मिला है। सदाचार सीखने के लिए किसी स्कूल या धर्मगुरू के पास जाना ज़रूरी नहीं। यह तो हमारे पूर्वजों की सैकड़ों वर्षों की जमा पूँजी है। किसे नहीं पता कि बड़ों का सम्मान करें, झूठ न बोलें, चोरी न करें, पराई स्त्री पर नज़र न रखें। ये सभी सदाचार के गुण ही तो हैं। हम सभी कहेंगे यह सब तो हमें पहले से ही मालूम है। फिर भी आज के समय में लोग सदाचार सीखने के लिए पैसे खर्च कर रहे हैं। यह बात अलग है कि सदाचार सिखाने वाले लोग कितने सदाचारी हैं, कहना थोडा मुश्किल है। आजकल सदाचार सिखाने के लिए बक़ायदा फीस वसूली जाती है। कहने का मतलब यह है कि इन्ही पैसों से सदाचारी गुरूओं, बाबाओं ने खुद के आलीशान बंगलें बनाये हैं। ये धर्मगुरू और बाबा हवाई जहाज से नीचे पैर नहीं रखते। ये बिना एयर कंडिशन वाली गाड़ी में बैठ नहीं सकते। इनके हर देश में आश्रम हैं। इनके साधारण बैंकों से लेकर स्वीज् बैंकों तक में एकाउंट्स हैं। 


स्वास्थ्य:-

जैसे ही हम तीसरी कक्षा में गए थे, हमें सिखाया गया था स्वस्थ शरीर में स्वस्थ विचार पनपते हैं। हमारे जीवन में स्वास्थ्य का क्या महत्व है। यह सभी को भलीभांति पता है कि आज इस प्रदूषण के माहौल में अक्सर लोग बीमार रहते हैं। कोई ही ऐसा होगा जो यह कहेगा कि हम स्वस्थ हैं, हमें कोई बीमारी नहीं है। नहीं तो ज्यादातर लोग किसी न किसी तरह की बीमारी का रोना रोते रहते हैं।


धन:-

अब बारी धन की आती है। इस समय धन का ही अधिक महत्व है। बिना धन के न तो सदाचार सीखा जा सकता है और न ही बिना धन के मनुष्य का स्वास्थ्य ठीक से रह सकता है। आज के युग में मानव ने अपनी आवश्यकताओं को इतना अधिक बढ़ा लिया है कि उसे किसी भी प्रकार से धन चाहिए। धन कमाने के लिए मनुष्य सदाचार को ताख पर रख देता है। आज के मानव की मानवता का मापदंड सदाचार नहीं वरन धन है। आज के समय में निर्धनता सब प्रकार की विपत्तियों का मूल कारण है। श्री ठाकुरदत्त जी ने लिखा है-"निर्धन मनुष्य जब अपनी रूचि और मर्यादा के अनुकूल कार्य नहीं कर पाता, तो उसे लज्जा का अनुभव होता है, लज्जा के कारण वह तेज से हीन हो जाता है। तेज से हीन हो जाने पर उसका पराभव होता है। पराभव होने पर उसे ग्लानि होती है। ग्लानि के बाद बुद्धि का नाश होता है। और उसके बाद वह क्षय को प्राप्त हो जाता है।"


उपसंहार:-

इस विषय पर जितना लिखा जाय कम ही है। यदि सदाचार पर आप पढ़ना चाहे तो हजारों हजार किताबें पढ़ने को मिल जायेंगी। स्वास्थ्य पर दिनों-दिन रिसर्च हो रहे हैं। बीमारी को दूर भगाने की नयी-नयी तकनीकों को ईजाद किया जा रहा है। इसी तरह बीमारियां भी नयी-नयी पनप रहीं हैं। और अंत में कहा जाय तो धन पर लिखना तो एक प्रकार का धन की बर्रादी ही होगी। धन, धान्य से परिपूर्ण है।


©शिशु नज़र नज़र का फ़ेर।

गरीबों को लूटना आसान है....


सुनने में यह बात भले ही अजीब लगे लेकिन है कुछ हद तक सच ही। गरीबों को लूटने का धंधा हर जगह हो रहा है, चौराहे से लेकर चहारदीवारी तक उनको लूटा जा रहा है। अक्सर देखा जाता है कि चौराहा पर सामान बेंचने वाले बच्चों का सामान पुलिस छीन लेती है। क्या इस जबरदस्ती सामान छीनने को लूटना कहना गलत है?

गरीबों को लूटना इसलिए भी आसान है, क्योंकि उनके मामले कहीं दर्ज नहीं होते, उन्हें कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने में डर लगता है। मीडिया भी उनकी खबरे छापने से कतराता है। हां कभी-कभार छुटपुट खबरें तो जरूर छप जाती हैं, मगर दूसरे ही दिन लोग उन खबरों को भूल जाते हैं।

पहले के समय में ऐसा सुनने में आता है कि गांवों में जमींदार लोग गरीबों लूटते थे। वह लूट भंयकर लूट होती थी। वे गरीबों के माल-असबाब के अलावा उनकी स्त्रियों की आबरू लूटने में भी नहीं हिचकिचाते थे। सुनने में तो यहां तक आता है कि उस समय की लूट में महिलाओं के अलावा उनके बच्चे भी शामिल होते थे। लुटेरे जमींदार गरीबों के बच्चों कों जबरन काम पर लगाते थे। और उन्हें लूटने के अलावा उनके साथ घृणित व्यवहार भी किये जाते थे। मारपीट तो आम बात थी, यहां तक कि उनको जानवरों के साथ बाड़े में बंद कर दिया जाता था। कई-कई दिनों तक उन्हें खाना नहीं दिया जाता था। वे अपने परिवार के साथ सामाजिक समारोहो के अलावा धार्मिक त्यौहार भी नहीं मना सकते थे। उस लूट को सुनकर कलेजा कांप जाता है।

आजकल की लूट-खसोट में भी गरीब तबका ही परेशान है। इस लूट को भी पुराने समय की लूटों से कम नहीं आंका जाना चाहिए। इस समय की लूटो में आदमी से अपने आप को लुटने के लिए कहा जाता है। कई बार तो आदमी मजबूरी में लुट जाता है। रिश्वतखोरी और ठगी का धंधा अब ज्यादा प्रचलित है। यह भी एक तरह की लूट है। छोटे-से छोटे काम को कराने के लिए रि’वत देनी पड़ती है। कभी कभी तो सही काम कराने तक के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। और इस रि’वर को लेने वाले लोग बड़े साहब होते हैं।

अब के समय में जिले स्तर की कोर्ट कचहरियों में गरीबों को वकील और उनके मुहर्रिर लूटते नजर आ जाते हैं। वकील लोग इन गरीबो के मुकदमों को लम्बा खींचते हैं ताकि मरते दम तक यह वकील की फीस देता रहे। अमीर का वह अधिक फीस और रि’वत देकर मामला जल्दी से जल्दी रफा-दफा करवा लेता है।

सफर में भी भारतीय रेलों में भी गरीबों को लूटने की घटनाएं अमीरों की तुलना में ज्यादा हैं। गरीब लोग काम काज की तलाश में इधर-उधर भटकते रहते हैं इसलिए उन्हें सफर करना पड़ता है। रेलवे के साधारण डिब्बे में सफर करने वाले ज्यादातर लोग करीब होते हैं। अक्सर देखा गया है कि उन गरीबों को लूटने के लिए रेल के डिब्बे तक में आ जाते हैं। रेलवे की इस लूट के संदर्भ में हम दो शताब्दी पूर्व के ठगों को याद करें, तो इस कृत्य में अपनी महान परंपरा की झलक पा सकते हैं। बंटमारी की परंपरा तो पाषाण काल तक जाती है, लेकिन मध्य काल में भारत, विशेष रूप से मध्य देश में ठगों का जैसा विकसित तंत्र था, उसकी मिसाल दुनिया भर में कहीं नहीं मिलती। ये लोग अपने समय के सबसे क्रूर हत्यारे थे, जो राहगीरों की हत्या किए बगैर सामान लूटने में यकीन नहीं करते थे।

अब की लूट तो ऐसी है कि छोटे-छोटे देश जो गरीब हैं, वो भी विकसित देशों द्वारा लूटे जा रहे हैं। उन्हें तरह-तरह के सब्जबाग दिखाकर लूटा जा रहा है। भूमण्डलीकरण इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। इस लूट में किसान, बुनकर, हथकरघा उद्योग में लगे कामगार और छोटे-छोटे उद्योग जो गावों में चल रहे हैं, शामिल हैं।

Tuesday, November 18, 2008

कभी घी घणा, कभी गुड़ चना कभी वो भी मना

अभी ज्यादा समय नहीं हुआ। बात तब की है जब हम बच्चे थे। उस समय हमारे गांव में बर्फ बेंचने वाला (शहरी भाषा में इसे आइस्क्रीम कहते हैं) आया करता था। उसका एक तकिया कलाम था या कहे उसकी एक मार्केटिंग की भाषा थी - अठन्नी का मजा चवन्नी में। यानी पचास पैसे वाला बर्फ केवल पच्चीस पैसे में और मजा पचास पैसे वाला। आज इस बढ़ती हुए मंहगाई को देखकर उसकी याद बरबस ताजा हो जाती है।

इस वर्ष जो मंहगाई आयी है वो पुराने समय में आने वाली महामारी की तरह की है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है। हर जगह बस हो या ट्रेन,आफिस हो या घर बस महंगाई ही चर्चा का विषय है। इसी पर बहस छिड़ी हुई है। हर कोई यह जानना चाहता है कि चीजों के दाम बढ़ेंगे या घटेंगे। कम पढ़े लिखे लोग तो इसी से हैरान हैं कि आखिर सारा पैसा गया हो गया कंहा?

इस बार की मंहगाई में चीजों के दाम इतने बढ़ गये हैं कि धनी वर्ग भी परेशान दिखाई दे रहा है। गरीब तो पहले से ही त्रस्त हैं उनके लिए तो पहले ही रोजी-रोटी का जुगाड़ जुटाना मुश्किल था। अब तो और भी मुश्किल है। कहा जाय तो उनके लिए यह मंहगायी केवल खाने-पीने और रोजमर्रा की वस्तुओं तक ही सीमिति है। कार खरीदना या घर बनवाना तो उसके लिए पहले की तरह सपना ही है। इस बार देखा गया है कि इस मंहगाई से धनी वर्ग को कुछ ज्यादा ही मुश्किल हो रही है। इन दिनों उसे अपने विलासिता के संसाधनों की कटौती जो करनी पड़ रही है। उसे अपने कार की ईएमआई की चिन्ता के अलावा पीजा या बर्गर न खा पाने की चिंता भी है। उसने हवाई यात्राओं में कटौती की है। क्लबों और होटलों में खाना छोड़कर घर की बाई का बनाया खाना खाना शुरू किया है। ताकि इस बढ़ती हुई मंहगाई को हंसते-हंसते झेल सकें।

इस बढ़ती हुई मंहगाई को इस बार अमीर देश भी झेल नहीं सके। उनकी हालत तो हम जेसै देश (विकास विकासशील देश) की तुलना और भी खस्ता हाल हुई है। इन अमीर देश के कितने ही धनवान दीवालियापन के शिकार हो गये हैं। बड़े-बड़े उद्योग धंधे चौपट हो गये हैं। उनके शेयर बाजार ठेर हो गये हैं। जिसका नतीजा यह हुआ कि कितने ही लोग बेरोजगार हो गये। कहा जाय तो उनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गयी।

हाय मंहगाई! हाय मंहगाई का शोर चारों ओर सुनाई दे रहा है। ज्यादातर लोग मान रहे हैं कि इस बढ़ती हुई मंहगाई का मूल कारण शेयर बाजार हैं। कारण जो भी हों इस बढ़ती हुई मंहगाई ने क्या गरीब वर्ग क्या अमीर सभी को प्रभावित किया है। कहें तो आम आदमी से लेकर धनी वर्ग सभी परेशान हैं। सभी की थाली का खाना पहले की तुलना में उतना स्वादिस्ट नहीं रहा जितना कि इस बढ़ती मंहगाई से पहले था। बड़े बुजुर्ग सही ही कह गये हैं-कभी गुड़ चना, कभी घी घना कभी वो भी मना।

Monday, November 17, 2008

यहां धू्रमपान मना है.......

ध्रूमपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अच्छी बात है। अखबार इन खबरों से पटे पड़े हैं। यह बात अलग है कि इन खबरों को छापने वाले ज्यादातर लोग ध्रूमपान करते ही हैं क्योंकि

कहा जाता है कि ध्रूमपान लेखक के लेखन में टानिक का काम करती है। पता नहीं यह बात कहां तक सत्य है और इस बात में कितना दम है लेकिन मीडिया के ज्यादातर लोग ध्रूमपान करते देखे या पाये जाते हैं।

सार्वजनिक जगहों पर बीड़ी, सिगरेट, शराब और ध्रूमपान सबंधी अन्य सभी क्रियाओं पर पहले से ही रोक लगी थी। बावजूद इसके लोग सार्वजनिक जगहों पर खुल्मखुल्ला ध्रूमपान करते हैं। इसलिए इस वर्ष 2 अक्तूबर से इस पर आर्थिक दण्ड बढ़ाकर 200 रूपये कर दिया गया। इस आर्थिक दण्ड को दोगुना इस उम्मीद से किया गया कि ध्रूमपान निरोधक कानूनों का कड़ाई से पालन होगा।

इस बार जुर्माने के साथ और भी कई नियम जुड़ गये हैं जिसमें प्राइवेट आफिस में भी धू्रमपान प्रतिबंधित है। पहले केवल सरकारी आफिसों में ऐसे कानून लागू थे लेकिन इन कानूनों के बावजूद सरकारी कार्यालयों की दीवारें पान और तमाकू की पीक से तो यही बयान करने थे उन पर इन कानूनों क्या असर था। नये नियम के मुताबिक अब प्राइवेट कम्पनियों के ऑफिसों में भी ध्रूमपान मना है इससे इन कम्पनियों में धू्रमपान करने के लिए धू्रमपान रूम अलग से बनाये जा रहे हैं।

इस कानून को लागू होने से पहले ही अखबार और मीडिया में इस खबर को छापने और दिखाने की होड़ सी लगी हुई थी। अब जब यह कानून लागू हो गया है तब तो विज्ञापन के अलावा बड़े-बड़े होर्डिंग भी लगाये जा रहे हैं। इन होर्डिंग में जुर्माने की ख़बर के अलावा संबंधित विभाग के आला अफसरों की फोटो भी दिखाई दे रही हैं। अब इन खबरों का इस ध्रूमपान निरोधक कानून पर कितना असर पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा अभी तो यही देखा जा रहा है कि इस नये कानून को लेकर सिगरेट पीने वाले कस लेकर धुंए की तरह उड़ा रहे हैं।

कहते हैं कि सिगरेट पीने वाले ज्यादातर पुरूष हैं। लेकिन पूरी तरह यह कहना कि महिलाएं इससे अछूते हैं गलत होगा। बदलते हुए जमाने जहां महिलाएं पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। वहीं वे ध्रूमपान को भी अपने बराबरी का अधिकार मानती हैं। जब पुरूष ध्रूमपान कर सकता है तो महिला क्यों नहीं, बात भी सच है कि वो क्या किसी से कम हैं। हालांकि मीडिया महिलाओं के ध्रूमपान करने से जो बीमारियां होती हैं उनकी दुहाई देकर उसे रोकने के लिए बराबर दबाव बनाता रहता है। इन खबरों के अनुसार महिलाओं के ध्रूमपान करने से उनके गर्भधारण के दौरान बच्चे के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है तथा स्तन कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां भी होती है, बताता रहता है।

महिलाएं किस तरह सिगरेट की शौकीन बन गयी हैं इसका एक ज्वलंत उदाहरण मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। दिल्ली की बस में मैं सफर कर रहा था, बस में एक व्यक्ति सिगरेट पी रहा था। लोगों ने उसे पीने से मना किया, उसे डराया-थमकाया। लेकिन वह व्यक्ति नहीं माना। हार कर किसी ने सामने बैठी एक महिला की दुहाही देते हुए मना किया। युवक ने सिगरेट फेंक दी। अब क्या, देखते हैं कि वही माताजी जिनकी दुहाई देकर युवक ने सिगरेट फेंकी थी, ने सिगरेट सुलगा ली। तो यह है बात कि किस तरह महिलाएं पुरूष की ध्रूमपान में बराबरी कर रही हैं।

डॉक्टर कहते हैं कि स्वास्थ्य पर सबसे बुरा असर ध्रूमपान करने से होता है। इसको देखते हुए सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन समय-समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करते रहते हैं। इन रिपोर्टों के अनुसार इतने सारे उपायो और कानूनों के बावजूद न तो सिगरेट पीने वाले कम हुए हैं और न ही अन्य किसी भी तरह का ध्रूमपान कर हुआ है। बावजूद इसके सिगरेट पीने वालों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ इसकी बिक्री की ब्राचें अब और भी बढ़ गयी हैं। जहां तक सवाल है इस नये कानून को लागू करने से तो अब भी दिल्ली के बस स्डैण्डों पर लोग सिगरेट पीते खुले आम देखे जा सकते हैं। बल्कि बसों के ड्राइवर तक ने सिगरेट पीते हुए बस चलाना अभी जारी रखा है।

बात चाहे जो भी हो इसमें जरा भी संकोच नहीं है कि इतने सारे नियम, कानून और स्वास्थ्य पर इसके बुरे असर को जानते हुए भी ध्रूमपान करने वाले कम हुए हैं कहना गलत होगा। डब्ल्यू.एच.ओ की एक रिपोर्ट अनुसार ध्रूमपान करने वालों की संख्या पहले से कहीं अधिक हो गयी है। तथ्य तो और भी चौंकाने वाले हैं कि जहां पहले महिलाओं की संख्या कम थी अब बढ़कर दुगनी हो गयी है। इस ध्रूमपान को कम करने के उपयों पर आपके सुझावों का हमें इंतजार है ताकि उस पर चर्चा की जा सके।

सिगरेट पीना जुर्म है यह सबको मालूम

सिगरेट पीना जुर्म है यह सबको मालूम
जुरमाना भी बढ़ गया है भी है मालूम
किंतु न सिगरेट छूटती कैसे होय उपाय
किसी तरह सिगरेट पियें जुरमाना बच जाय
जुरमाना बच जाय और सिगरेट पी जाए
साम दाम और दंड भेद के तीनो हुए उपाय
ध्रूमपान न कम हुआ भया समाज निरुपाय
भया समाज निरुपाय बात है बड़ी निराली
पहले तो सफ़ेद मिलाती थी अब मिलाती है काली
अब तो मिलाती काली 'शिशु' इसमे न शक है
साम दाम और दंड भेद के प्रयास हुए भरसक हैं.

Wednesday, November 12, 2008

आलोचनाओं से सबक मिलता है


इसमें संदेह नहीं है कि आलोचना किसी के लिए नुकसान देय है। इसीलिए कबीर दास जी ने भी कहा था-‘‘निंदक नियरे राखिये’। लेकिन यहां यह भी सत्य है कि यदि वही आलोचना किसी बैर भाव, उपहास और जानकारी के अभाव में की गयी है तो वह आलोचना आलोचक के लिए भी आलोचना बन जाती है। कहा तो यहां तक जाता है कि आलोचक ही सबसे बड़े प्रसंसक होते हैं। है कोई इसका जवाब? आपका जवाब आयेगा नहीं है इसका कोई जवाब।

मैंने अपना ब्लॉग लिखना अभी-अभी शुरू किया है। मतलब यह कि मैं अभी इस लाइन में नौसिखिया हूं। लोग पूछते हैं तुम्हारे ब्लॉग का उद्दे’य क्या है? तब मैं निरूत्तर हो जाता हूं। क्योंकि ब्लॉग लिखते समय मैंने यह सोचा ही नहीं था कि इसका होगा क्या। हां बात यह थी कि मन में कुछ उथल-पुथल मच रही थी उसे लिख डाला। अकेला जो था उस समय। सो उस समय मन में जो आया उसी की नकल बस ब्लॉग में उतार दी। कहने का मतलब यह है कि मेरा ब्लाग मेरे दिमाग की नकल है और कुछ नहीं।

मुझ जैसे नौसिखिया ब्लॉगर के लिए जब प्रसंसाएं मिलती हैं तो मन बाग-बाग हो जाता है।आलोचनाओं के लिए मैं अभी तैयार नहीं हूं। इसलिए आलोचनाएं मिलने पर मन को बहुत कष्ट होता है। इन्हीं आलोचनाओं के चलते ही मैने अपने ब्लॉग का नाम नजर नजर का फेर रखा। यह बात अलग है कि अब तक मिली हर आलोचना पर मैने गौर किया है उसे समझा है और अमल में भी लिया है।

आलोचनाओं से सबक मिलता है। आगे से मैं अपने लेख में उसका ध्यान रखता हूं। अभी की बात है मेरा लेख था ‘हमारा हीरा रोबोट हीरा है’ उस पर एक प्रसिद्ध आलोचक और ब्लॉग जगत के मशहूर लेखक एवं कवि श्री साधक जी की आलोचना कुछ इस प्रकार आयी-
भरा संवेदन दीखता कैसे कहें रोबोट
हीरा है यह आदमी ना बोलें
ना बोले रोबोट स्वयं की सीमा जाने
अपना काम करने पूरा, आलस ना जाने
कह साधक कवि, हम करते भावों का वेदन
कैसे कहें रोबोट दीखता भरा संवेदन।।

इसी तरह और भी आलोचनाएं आयी हैं जिनका विवरण शायद मेरे बूते की बात नहीं। हां उन पर गौर जरूर मैने किया है और उसके द्वारा अपने लेख को सुधारा भी है।

वहीं दूसरी तरफ कुछ एक कमेंटस ऐसी भी हैं जो लिखित तो नहीं हैं, लेकिन हैं कमेंट्स हीं, वह हैं हमारे सहकर्मियों की जो आहे-बगाहे मेरे ब्लॉग को देखते हैं। मैं यहां पर उनका नाम नहीं देना चाहता। वह खुद ही पढ़कर जान जायेंगे कि मैं किसके बारे में लिख रहा हूँ । ऐसे लोग एक-आध ही हैं। उन पर कबीर दास जी का यह दोहा क्या सटीक बैठता है-
कबिरा इस संसार में घणें मनुष मतिहीन।
राम राम जाने नहीं आये टोपादीन।।

अरे यह क्या मैं भी आलोचना करने लगा। यह ठीक नहीं है मेरे लिए।

Tuesday, November 11, 2008

नौकरी के नौ काम दसवां काम हाँ हजूरी


नौकरी के नौ काम दसवां काम हाँ हजूरी
फिर भी मिलती नही मजूरी
पूरी मिलती नही मजूरी
जीना भी तो बहुत जरूरी
इसीलिये कहते हैं भइया
कम करो बस यही जरूरी

घंटे आठ काम के होते
दो घंटे का आना-जाना
इसी तरह बारह हो जाते
इसको सबने ही है माना

कहने को हम बड़े काम के
फिर भी तो छुट्टी हो जाती
एक बात का और भी गम है
छुट्टी सारी ही कट जाती

कल क्या होगा किसने देखा
आज की बात अभी करते हैं
काम नही होता है जब भी
एक ब्लॉग यूँ ही लिखते हैं

बात लिखी है अभी अधूरी
पढ़कर कर तुम कर दोगे पूरी
ऐसा है विश्वास हमारा
यह नेता का नही है नारा

हिन्दी और बिंदी का क्या कभी लगाओ कभी उतारो


हिन्दी और बिंदी का क्या कभी लगाओ कभी उतारो
हिन्दी भासी और औरत को मिले वहीं पर मारो
हाय यही हो रहा देश में किसको कान्हा पुकारूँ
क्या यह देख खुदही की चाँद पे सौ सौ चप्पल मारूं
हिन्दी और औरतों पर हो रहे अत्याचार
नही समय अब भी बदला है यह कहते अखबार
यह कहते अखबार बात तुम मेरी मानों
कहते हैं 'शिशुपाल' आज हिन्दी को जानो
और औरतों की महिमा को तुम पह्चाओ।

Monday, November 10, 2008

हमारा हीरा, रोबोट हीरा है


लीजिये हीरा रोबोट बन गया। इससे पहले की आप हीरा रोबोट की कहानी पढ़े हीरा के बारे में जान लेना आवश्यक है. हमारा हीरा कोई मूल्यवान आभूषण न होकर एक आम इंसान है, नही, एक खास इंसान है. दरअसल उसका नाम हीरा है और वह एक इंसान है इसलिए हम इस हीरा की बात करेंगे न की उस हीरा है.

हीरा हमारे ऑफिस का सहकर्मी है। जो हमारे साथ काम करते हुए भी हमारा नही है. बात यह है की हीरा की कंपनी ने हमें यह हीरा दिया. हीरा की कंपनी ने हमें सपोर्ट स्टाफ और ऑफिस के लिए जगह मुहैया कराई है.

हीरा से मेरी पहली मुलाकात इस वर्ष फरवरी महीने के दूसरे सप्ताह में हुई थी। यहाँ हम हीरा के मूल निवास का जिक्र नही करेंगे क्योंकि उससे इंसान की पहचान करना इंसानियत नही। ऐसा मैं नही बल्कि विद्वान लोग कहते हैं। और मैं कोई विद्वान तो हूँ नही। ऐसा कहते हैं देश और समाज को चलाने वाले। खैर छोडिये इस बहस को और आइये कहानी पर गौर करें.

हम बात कर रहें हैं की हीरा हीरा न होकर रोबोट कैसे है। इस पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे. बात यह है की हमारा हीरा ऑफिस के सभी कर्मचारियों का सामान रूप से सम्मान करता है उसकी नजर में रजा और रंक वाली भावना नही है. वह ऑफिस में अधिकारीयों से लेकर कमचारियों तक सभी का काम करता है. वह हर किसी के आर्डर को गंभीरता से लेता है. हमारा हीरा सभी की बात को सुनता, समझता और उसका पालन करता. हीरा बैंक के काम से लेकर ऑफिस स्टाफ के लिए सिगरेट लाना, खाना लाना, डस्टिंग करना चाय देना. आदि सभी प्रकार के काम करता है. मैंने हीरा को कभी भी काम से जी चुराते नही देखा. फिर चाहे कोई काम हो हीरा कभी न नही करता. भले ही हीरा को उस काम की जानकारी हो या न हो.

हमारे हीरा की जान पहचान भी कम नही है। किसी भी बैंक में का नाम लीजिये हीरा का कोई न कोई न कोई उस बैंक में होगा ही. हीरा किसी को भी शिकायत का मौका नही देता. हीरा की सबसे बड़ी खूबी यह है की हीरा समय का बहुत पाबन्द है. हीरा का ऑफिस टाइम जैसे ही खत्म हुआ समझो हमारा हीरा अपने घर का हीरा हो जाता है.

अमूमन चार बजे के चाय हीरा है सबको देता है। बस चाय के कप ट्रे में रखे और चल पड़ा. चाय में चीनी कम है या चाय अच्छी नही बनी इससे हीरा को कुछ लेना देना नही है. वह तो साफ़ कहता है साहब चाय में कोई शिकायत है को किचन में बात कीजिये. हमारा काम चाय देना है चाय बनाना नही. बात भी तो हीरा की ठीक है क्यूँ सुनेगा भला वो किसी की. यह काम हीरा को कोई है.

हीरा के इन्ही गुणों के कारण हम कभी कभी उसे रोबोट कहते हैं. जन्हातक मेरी समझ है रोबोट का भी काम कुछ ऐसा ही होता होगा. लेकिन नही हमारा हीरा हीरा है रोबोट नही. तुलसी बाबा के वचन हमारे हीरा पर क्या खूब बैठते हैं. -
सूधा मन, सूधे वचन, सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधे सकल विधि रघुवर प्रेम प्रसूदि।।

तो अबसे हम हीरा को हमारा हीरा, रोबोट हीरा है कहेंगे।

भारतीय रेल

भारतीय रेल की पूरी आमदनी का 70 प्रतिशत माल ढुलाई से आता है। सवारी गाड़ियाँ आमतौर पर घाटे पर चलती है। माल ढुलाई के आय से सवारी गाड़ियों की घाटे की भारपाई होती है। हाल में ही ‘कन्टेनर राजधानी’ शुरू किया गया। यह खाने पीने की जरूरी चिजों की ढुलाई करता है। यह गाड़ी 1 घंटे में 100 किलोमीटर चलती है।

दार्जलिंग हिमालयन रेलवे दुनिया भर के लिए दर्शनिये है। यह ट्रेन अभी भाप के इंजन से चलती है। इसे वल्र्ड हेरिटेजसाइट का दर्जा दिया है। यह सिलीगोड़ी से दार्जलिंग के बीच पहाड़ी रास्तो पर 2134 किलोमीटर चलती है। यह सबसे ऊपर का स्टेशन घुम है।

नीलगिरि माऊन्टेन रेलवे दक्षिण भारत के नीलगिरि हिल्स में चलती है। इसे भी वल्र्ड हेरिटेजारइट के अन्दर रखा है।

तीसरा हेरिटेजसाइट है मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनश। पहले इसे विक्टोरिया टर्मिनश के नाम से जाना जाता था। पर ये भारतीय रेल के अन्दर ही आता है।

पैलेस और विल्स भाप इंजन से चलने वाली विशेष ट्रेन है। यह राज्यस्थान में टुरिज्म को बढ़ावा देने के लिए बनायी गई है।

महाराष्ट्र सरकार ने भी कॉन्कन रूट पर डेकन व्क्ब् चलायी। पर इसे पैलेस ऑन हिल्स जैसी सफलता नहीं मिली। समझौता एक्सप्रेस भारत से पाकिस्तान जाती है। कुछ कारणों से 2001 में बंद कर दिया गया था। 2004 से फिर चलने लगा है।

पाकिस्तान के खोखड़ा पार और भारत के मून्नाबाव तक थार एक्सप्रेस चलती है। 1965 में भारत और पाकिस्तान युद्ध के बाद इसे बंद कर दिया गया था। 18 फरवरी 2006 को इसे फिर से शुरू किया गया।

कालका शिमला रेलवे का नाम गिनिज ऑफ वल्र्ड रिकार्ड । वह ढलान पर चढ़ती हुई 96 किलोमीटर की ऊँचाई पर जाती है।

लाइफ लाइन एक्सप्रेस को आम तौर पर हॉसपीटल ऑन विल्स के नाम से जाना जाता है। यह ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ सेवायें प्रदान करती है। इसमें एक ऑपरेशन रूम होता है, एक स्टोर रूम होता है। इसके अलवा रोगियों के लिए दो और वार्ड होते हैं। यह ट्रेन देश भर में विभिन्न स्थानों पर रूक-रूक घुमती है।

रेलवे स्टेशनों में सबसे छोटा नाम इब है। और सबसे लम्बा नाम है- श्री वेंकटानरसिंहाराजूवारिया पेटा।

हिम सागर एक्सप्रेस सबसे लम्बा रूट तय करती है। यह कन्या कुमारी और जम्मूतवी के बीच चलती है। यह ट्रेन 3745 किलोमीटर (2327 मील) का सफर 74 घंटे और 55 मिनट में तय करती है।

बिना रूके सबसे लम्बा सफर तय करने वाली ट्रेन है त्रिवेंद्ररम राजधानी यह ट्रेन दिल्ली के निशामुद्दीन रेलवे और त्रिवेंद्ररम के बिच चलती है। यह ट्रेन बड़ौदा और कोटा के बीच बिना रूके चलती है।

भारतीय रेल की सबसे तेल गति से चलने वाली यात्री गाड़ी है भोपाल शताब्दी एक्सप्रेस। फरीदाबाद और आगरा के बीच यह गाड़ी 140 किलोमीटर प्रतिघंटा के हिसाब से चलती है। सन् 2000 में जब इसका टेस्ट हुआ था तब इसे 144 किलोमीटर प्रतिघंटे के हिसाब से चलाया गया था। फिर भी यह दुनिया के सबसे तेज चलने वाले गाड़ियों के मुकाबले सबसे कम है।

Friday, November 7, 2008

यानी सभ्य ऊंचे होते हैं और असभ्य नीचे .....


हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट जी ने नीचपन की एक बहुत अच्छी परिभाषा दी है-‘‘नीचता वहीं बसती है जहां प्रत्यक्ष में ऊंचाई है।’’ बात सौ आने सही है। क्योंकि इसी नीचता से ही ऊंच-नीच शब्द की उत्पत्ति हुई है। गांवों में बाल विवाह के लिए एक दलील दी जाती थी कि लड़कियों के साथ कोई ऊँच-नीच न हो जाये इसलिए उनकी शादी जल्दी करना ठीक होगा। कहा जाता है कि नीचता के कारण आदमी मुंह दिखाने तक के लायक नहीं रह जाता।

एक सार्वभौमिक सत्य यह भी है कि जहां ऊंचाई है वहीं नीचाई है। अमीरी और गरीबी भी इसी के पर्याय हैं। मतलब अमीर ऊंचे हैं और गरीब नीचे हैं। इसलिए अमीर की नजर में गरीब नीच होते हैं। इसी प्रकार असभ्य के लिए भी नीच शब्द का प्रयोग किया जाता है। यानी सभ्य ऊंचे होते हैं और असभ्य नीचे।

आज समाज के चलन में अनुसार ऊँच-नीच का भेद ऐसा चल पड़ा है कि अब उसमें जौ मात्र भी अदल-बदल हो पाना सम्भव नहीं। कहा जाय तो नीच एक प्रकार से गाली बन गया है जैसे राज ठाकरे की नजर में बिहारी नीच हैं और महाराष्ट्रिय ऊंचे हैं। लेकिन बिहारियों और उत्तर भारतियों की नजर में राज ठाकरे नीचता का काम कर रहे हैं। इसलिए राज ठाकरे नीच हैं। खैर इसमें पड़कर समय गंवाना भी नीचता है जैसे कि आजकल इस विषय पर देश के नेता कर रहे हैं।

कहते हैं कि किसी भी गलत काम करने वाले को भी नीच कहा जाता है। होता यह है कि जिसने नीच कहा वह अपने को ऊंचा समझता है। कभी-कभी व्यक्ति नीचता की हद पार कर जाता है। तब उसे नीचपन कहते हैं। नीचपन किसी भी दूसरे योनि के प्रणियों के लिए नहीं वरन मनुष्य मात्र के लिए ही बना है। ऊंची दुकान फीके पकवान भी इसी से बना होगा।

रूपया ऊंच-नीच की भरपूर कसौटी है। जिसने भी रूपये को लात मारकर प्रतिष्ठा का आदर किया वह ऊंचा है और जो रूपये के पीछे पड़कर अपने परिवार, समाज और देश का अहित करता है वह नीच है। ऐसे ही धर्म के लिए भी बोला जाता है जो अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्म के लोगों की भलाई करता है वह ऊंचा है और जो अपने धर्म के लाभ के लिए दूसरे धर्मों को हानि पहुंचाता है वह नीच है। ऐसा अभी हाल ही में उड़ीसा में देखने को मिला।

इसी नीचता पर गोस्वामी तुलसीदास ने कई सारी चौपाइयों का निमार्ण किया देखिये-‘‘नीच निचाई नहिं तजें जो पावे सतसंग’’ (इसका अर्थ है कि नीच मनुष्य अपनी नीचता से बाज नहीं आता चाहे कितनी ही अच्छी संगति में रहता हो)। एक जगह तुलसीदास ने यहां तक कहा कि ‘नवनि नीच के अति दुखदाई, जिमि अकुंस घनु उरग, बिलाई’’ इसका अर्थ यह है कि नीच यदि कभी आकर नम्रता प्रकट करे तो इससे बहुत डर की बात समझना चाहिए। फिर दुबारा एक जगह उन्होंने ऐसा भी कहा है कि ‘‘सठ सुधरइं सतसंगत पाई’’ (सठ यानी नीच क्योंकि मूर्ख व्यक्ति विद्वानों की नजर में नीच होते हैं) इस उपयरोक्त चौपाई का अर्थ है- नीच को नीचता त्यागने के लिए उच्च विचार वाले लोगों के साथ उठना-बैठना चाहिए।

बात सीधी सी एक है कि नीचता कैसी भी हो नीचता ही रहेगी। इसलिए हे मानुष नीचता को छोड़कर ऊंचे उठो। इसे मराठी में कहें तो कुछ ऐसा है-‘‘म्हसून हे माणसांनो नीच ला सोडून वर उठा।’’

Wednesday, November 5, 2008

हम, तुम सबमे अच्छे

आप
दोमुंहा सांप
वो सब अक्ल के कच्चे
हम, तुम सबमे अच्छे
तुम सब गधे के पूत
हमीं स्वर्ग के दूत

यही इस समय चल रहा है
पता है इसलिए कि चुनाव का बिगुल बज रहा है

आरोप - प्रत्यारोप के बाण चल रहे हैं,
युध कि तरह चुनाव के ऐलान हो रहे हैं!

अदला बदली तो हमारा गहना है
यह मेरा नही उनका कहना है

पुराने सारे नारे नए में बदल गए
भाजपा के प्रत्यासी बसपा में चले गए

"तिलक तराजू और तलवार उनके मारो जूते चार" कि जगह अब
हाथी नही गणेश है ब्रम्हा विष्णु महेश है,

सौदा पटा तो भी टिकेट कटा नही पटा तो भी टिकेट कटा
हर रोज यही ख़बर है कि उसकी जगह कोई दूसरा प्रत्यासी डटा

घोषणा पत्र को चुनावी एजेंडा कहा जाता है
यही घर घर जाकर हर एक को थमाया जाता है

हरिजन के पैर कोई ब्राम्हण छु गया
राम राम कि जगह जय भीम कह गया

चलो इसी बहाने छुआ - छूत् मिट गया
अपराधी कलुआ इसी से खुश है उसे कोई दूत मिला गया

हमें क्या? हम तो जनता हैं
हमारे साथ सब कुछ यूँही चलता है

भगवान के लिए आप इन्हें ब्यूटीफुल न कहें....


इसमें किंचित संदेह नहीं कि पहले की तुलना में अब महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। पहले के समय में महिलाएं घर की चहारदीवारी से बाहर कदम नहीं रख सकती थीं। उन पर पहरा था। भारतीय कानून की धाराओं की तरह उन पर कई तरह की प्रथाएं लागू थीं। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, दहेज प्रथा आदि इसी प्रकार की कई अन्य प्रथाएं इन महिलाओं के लिए ही बनी थीं। इतना ही नहीं उनके पहनावे भी अजीब थे। वे बिना पर्दे के पराये पुरूष के सामने नहीं लायी जाती थीं। पुरानी कहावत ‘औरतों का गहना लज्जा है’ उसी समय की है।

जैसा कि कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है तो अब इस बदलते हुए हालातों में महिलाओं के हालात भी बदले हैं। आज महिला सशक्तिकरण का दौर है। महिलाएं अब पहले की तुलना में काफी आगे आयी हैं। शिक्षा से लेकर नौकरी-पेशे तक उनकी पहुंच है। समाज के किसी भी समारोह में उनकी अगुवाई है। अब स्त्रियांे के आर्थिक रूप से पुरूषों पर निर्भर होने की स्थिति में पिछले कुछ दशकों में भी तेजी से कमी आई है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पहले रोजगार के हर क्षेत्र में पुरूषों का वर्चस्व था, पर अब ऐसा नहीं है।

जाहिर सी बात है इतने सारे बदलावों के चलते उनके पहनावे में भी पहले की तुलना में काफी बदलाव आया है। वही महिलाएं अब सुन्दर दिखने के लिए मंहगे से मंहगे संसाधन प्रयोग में ला रही हैं। ऐसे में अब सुन्दरता की परिभाषा भी बदली है। अंग्रेजी भाषा में सुन्दर को ब्यूटीफुल या स्मार्ट कहा जाता है। पहले के समय हम सुन्दर के लिए इसी ब्यूटीफुल शब्द का प्रयोग करते थे। लेकिन अब इसी ब्यूटीफुल को सेक्सी कहा जाता है।

सुन्दरता के बदलते हुए इस स्वरूप को आज की उभरती हुई नारी को अपनाने में कतई संकोच नहीं है। यह बात नहीं है कि पुरूष इससे पीछे हैं उन्हें भी सेक्सी कहलाये जाने में कोई ऐतराज नहीं लेकिन महिलाएं इस शब्द को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे रही हैं। अब किसी सुन्दर महिला को ब्यूटीफुल कह देने भर से काम नहीं चलेगा। ब्यूटीफुल तो हर कोई है। कौन कहता है हम सुन्दर नहीं? लेकिन सेक्सी कोई ही कोई होता है।

अब इन सेक्सी दिखने वालों के लिए ब्यूटीफुल शब्द यदि भूले से ही इस्तेमाल हो जाए तो समझो तुम्हारी खैर नहीं। इसलिए भगवान के लिए आप इन्हें ब्यूटीफुल न कहकर सेक्सी ही कहें तो ही अच्छा रहेगा। इसी में हमारी और तुम्हारी भलाई है। बस यही मेरी आपसे विनती है।

Tuesday, November 4, 2008

गरीब की लुगाई पूरे गांव की भौजाई।

बात बिल्कुल ताजी है। ताजी इसलिए कि अखबार और मीडिया में यह खबर प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हो रही है। जी हां हम बात कर रहे हैं महाराष्ट्र में हाल की घटित घटनाओं की।

हाल ही में महाराष्ट्र के राज ठाकरे की उत्तर भारतीयों और बिहारियों पर की गयी टिप्पणियों पर गहमा-गहम बहस जारी है। चारों तरफ यही चर्चा है कि कल की मुख्य खबर क्या होगी। और हो भी क्यों न इस महीने की मुख्य खबरों में इसे तवज्जो जो दी गयी है। मुझे तो यहां तक यकीन है कि इस वर्ष के सप्ताहांत के अंतिम दिनों में इस घटना को भी अन्य प्रमुख राष्ट्रीय घटनाओं की तरह प्रमुखता दी जायेगी।

मुझे राज ठाकरे के बयान के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं हैं लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि उसके भड़काऊ भाषण और बयानबाजी से बिहारियों और उत्तर भारतीयों के गरीब वर्ग की जनता को बहुत कष्ट उठाने पड़े हैं। उन्हें आर्थिक नुकसान के साथ ही उनके जान-माल को भी काफी नुकसान पहुंचा है। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस लूट-खसोट में मनसे के कार्यकर्ताओं के अलावा महाराष्ट्र के उपद्रवी और लुटेरे वर्ग भी संम्मिलित रहे होंगे। उपद्रवी और लुटेरों को तो इसी का इंतजार रहता है। उनकी यही रोजी-रोटी है और यही धंधा।

जैसा कि विदित है कि इन सब घटनाओं से सबसे ज्यादा नुकसान गरीब और मेहनतकश जनता को हुआ है जो रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर-बार और शहर छोड़कर दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। वे महाराष्ट्र के बड़े शहरों मुम्बई के अलावा पुना और नागपुर जैसे शहरों में काम-धंधे के लिए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि राज ठाकरे के बयान से सेलेब्रटी और अमीर वर्ग को नुकसान नहीं हुआ है, नुकसान उनका भी हुआ है लेकिन वह नुकसान केवल बयान-बाजी तक ही रहा। कहना ठीक होगा कि यह माफीनामे तक ही रहा। इसे क्रिया और प्रतिक्रिया की तरह ले सकते हैं।

देश के इन मेहनतकश और कमाऊ जनता पर अब देश के नेता और राजनेता दोनों ही रोटियां सेकने पर मशगूल हैं। उन्हें तो एक मुद्दा मिल गया जिसका उन्हें हर चुनाव में इंतजार रहता है। वो गठबंधन की इस राजनीति को भली भांति जान गये हैं। सबको पता है कि लोकसभा चुनाव सामने है सेंक लो जितनी रोटियां सेंकनी हैं फिर कंहा ऐसा मौका मिलेगा ! यही उनके बीच चल रहा है।

ये राजनेता एक दूसरे पर छींटाकशी कस रहे हैं। उत्तर भारत के एक प्रख्यात नेता ने तो यहां तक कह दिया कि वे अब ‘निर्दलीय अभियान समिति’ बनाकर पूरे सूबे का दौरा करेंगे और अपना तथा अपनी पार्टी के विधायकों और सांसदों का इस्तीफा दे देंगें। एक दूसरे नेता ने तो राज ठाकरे पर फतवा तक जारी कर दिया। अलग-अलग तरह के नेता अलग-अलग तरह के बयान भी दे रहे हैं। कोई कह रहा है कि वह महाराष्ट्रियों के खिलाफ नहीं है उन्हें तो सिर्फ राज ठाकरे को सबक सिखाना है।

महाराष्ट्र में भी एक अलग तरह की राजनीति शुरू हो गयी है। वहां के नेता भी बयानबाजी में पीछे नहीं हैं। कुल मिलाकर पूरे देश में आजकल मराठी-गैर मराठी, हिन्दी भाषी-गैर हिन्दी भाषी पर चर्चाओं का शोर है। इसका सीधा सा मतलब है वोट की राजनीति।

यह कहना अभी से ठीक नहीं होगा कि इस सस्ती और गंदी राजनीति से किसको कितना फायदा होगा मराठी नेताओं को या बिहारी या उत्तर भारतीय नेताओं को लेकिन इतना जरूर तय है कि इसके चक्कर में गरीब जनता जरूर पिस रही है और आगे भी यही होगा। बड़े बुर्जग सही ही कह गये हैं कि ‘गरीब की लुगाई, पूरे गांव की भौजाई’।