सुनने में यह बात भले ही अजीब लगे लेकिन है कुछ हद तक सच ही। गरीबों को लूटने का धंधा हर जगह हो रहा है, चौराहे से लेकर चहारदीवारी तक उनको लूटा जा रहा है। अक्सर देखा जाता है कि चौराहा पर सामान बेंचने वाले बच्चों का सामान पुलिस छीन लेती है। क्या इस जबरदस्ती सामान छीनने को लूटना कहना गलत है?
गरीबों को लूटना इसलिए भी आसान है, क्योंकि उनके मामले कहीं दर्ज नहीं होते, उन्हें कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने में डर लगता है। मीडिया भी उनकी खबरे छापने से कतराता है। हां कभी-कभार छुटपुट खबरें तो जरूर छप जाती हैं, मगर दूसरे ही दिन लोग उन खबरों को भूल जाते हैं।
पहले के समय में ऐसा सुनने में आता है कि गांवों में जमींदार लोग गरीबों लूटते थे। वह लूट भंयकर लूट होती थी। वे गरीबों के माल-असबाब के अलावा उनकी स्त्रियों की आबरू लूटने में भी नहीं हिचकिचाते थे। सुनने में तो यहां तक आता है कि उस समय की लूट में महिलाओं के अलावा उनके बच्चे भी शामिल होते थे। लुटेरे जमींदार गरीबों के बच्चों कों जबरन काम पर लगाते थे। और उन्हें लूटने के अलावा उनके साथ घृणित व्यवहार भी किये जाते थे। मारपीट तो आम बात थी, यहां तक कि उनको जानवरों के साथ बाड़े में बंद कर दिया जाता था। कई-कई दिनों तक उन्हें खाना नहीं दिया जाता था। वे अपने परिवार के साथ सामाजिक समारोहो के अलावा धार्मिक त्यौहार भी नहीं मना सकते थे। उस लूट को सुनकर कलेजा कांप जाता है।
आजकल की लूट-खसोट में भी गरीब तबका ही परेशान है। इस लूट को भी पुराने समय की लूटों से कम नहीं आंका जाना चाहिए। इस समय की लूटो में आदमी से अपने आप को लुटने के लिए कहा जाता है। कई बार तो आदमी मजबूरी में लुट जाता है। रिश्वतखोरी और ठगी का धंधा अब ज्यादा प्रचलित है। यह भी एक तरह की लूट है। छोटे-से छोटे काम को कराने के लिए रि’वत देनी पड़ती है। कभी कभी तो सही काम कराने तक के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। और इस रि’वर को लेने वाले लोग बड़े साहब होते हैं।
अब के समय में जिले स्तर की कोर्ट कचहरियों में गरीबों को वकील और उनके मुहर्रिर लूटते नजर आ जाते हैं। वकील लोग इन गरीबो के मुकदमों को लम्बा खींचते हैं ताकि मरते दम तक यह वकील की फीस देता रहे। अमीर का वह अधिक फीस और रि’वत देकर मामला जल्दी से जल्दी रफा-दफा करवा लेता है।
सफर में भी भारतीय रेलों में भी गरीबों को लूटने की घटनाएं अमीरों की तुलना में ज्यादा हैं। गरीब लोग काम काज की तलाश में इधर-उधर भटकते रहते हैं इसलिए उन्हें सफर करना पड़ता है। रेलवे के साधारण डिब्बे में सफर करने वाले ज्यादातर लोग करीब होते हैं। अक्सर देखा गया है कि उन गरीबों को लूटने के लिए रेल के डिब्बे तक में आ जाते हैं। रेलवे की इस लूट के संदर्भ में हम दो शताब्दी पूर्व के ठगों को याद करें, तो इस कृत्य में अपनी महान परंपरा की झलक पा सकते हैं। बंटमारी की परंपरा तो पाषाण काल तक जाती है, लेकिन मध्य काल में भारत, विशेष रूप से मध्य देश में ठगों का जैसा विकसित तंत्र था, उसकी मिसाल दुनिया भर में कहीं नहीं मिलती। ये लोग अपने समय के सबसे क्रूर हत्यारे थे, जो राहगीरों की हत्या किए बगैर सामान लूटने में यकीन नहीं करते थे।
अब की लूट तो ऐसी है कि छोटे-छोटे देश जो गरीब हैं, वो भी विकसित देशों द्वारा लूटे जा रहे हैं। उन्हें तरह-तरह के सब्जबाग दिखाकर लूटा जा रहा है। भूमण्डलीकरण इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। इस लूट में किसान, बुनकर, हथकरघा उद्योग में लगे कामगार और छोटे-छोटे उद्योग जो गावों में चल रहे हैं, शामिल हैं।
बहुत अच्छा लिखा है आपने। आज के जमाने में वाकई गरीबों को लूटना आसान है , क्योंकि उसके साथ कोई भी नहीं ।
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