Friday, July 31, 2009

सपने मुझको रात डराते इसीलिये हूँ जगता

सपने मुझको रात डराते
इसीलिये हूँ जगता
जाग-जाग कर इन रातों में
कुछ पढता कुछ लिखता

घर में छोटी है एक दुनिया
जिसमे रहती पुस्तक प्यारी
एक नही कई बार पढ़ गया
सबकी सब न्यारी- प्यारी

पढ़ी 'जीवनी लेनिन' की
और बागी सिख लड़े कैसे
कैसी किसने रखी 'प्रतिज्ञा'
थे जीवन मक्सिम के कैसे

'भगत सिंह की जेल नोट बुक'
दसियों बार पढ़ी मैंने
'आधी रात मिली आज़ादी'
यह जाना पढ़कर मैंने

'सन 1857 में दिल्ली का
था कौन दलाल'
खबरें देकर गोरों को
जो हो गया कैसे मालामाल

बीस बार तक पढ़ी 'नास्तिक'
अब तक समझ नही आयी
'नर्क' भी पढ़ गया उतनी बार
बात लेकिन बन पायी

'है रहस्य क्या हिंदुत्व' का
यह भी मैं खरीद लाया
पढ़कर के 'कबीर' को फिर से
जाना दुनिया सब माया

'सहकारी खेती' होती क्या
कुछ - कुछ समझ मेरे आया
'शहर में कर्फु' लगता कैसे
इसका मर्म समझ पाया

क्या है दर्द 'भाखडा' गाँव का
कैसे लोग हुए बेघर
'कौन लोग आगे बढ़ते हैं
किसको मिलता है अवसर'

'खुदा कहीं क्या चला गया है'
के साथ पढी मैंने 'गीता'
'बाइबिल' पढी 'कुरान' पढ़ गया
तुलसी की पढ़ था सीता

'कुछ तो कहो यारों' की कविता
अच्छी मुझको सब लगती
और 'विश्व के कोनो में क्या
दुनिया हम जैसी रहती'

इतिहास पढ़ गया 'पश्चिमी एशिया'
कैसे, कब, क्यूँ घटनाएं थीं
बंकिम के लेखों में देखा
भारत की क्या घटनाएं थी

कल की रात बीत गयी फिर से
लिखते लिखते गीतों में
आज सोचता हूँ क्या होगा
पता चला संगीतों में

4 comments:

  1. चलो डर से ही सही रचनात्मक तो हो गये. बहुत रचनात्मक डर है
    बहुत अच्छी रचना

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  2. are waah kya kahane...........badhaaee

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  3. बहुत अच्छी रचना है!

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  4. बहुत बहुत बहुत अच्छी रचना

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