मैं ही घर में, मैं ही बाहर,
मेरा ही रुतबा चलता है
राह में रोड़ा जो अटकाता
उस पर तब कोडा चलता है
बोल रहा है धनीराम ये
धंधा मैंने ही फैलाया
मत भूलो तुम सब नौकर हो
पैसा मेरे ही है लाया
काम करोगे मन से मेरे
तब तनख्वाह बढ़ाऊंगा
नही समझ लो तुम सबको
मैं घर से अभी भगाऊंगा
एक बात तुम गांठ बाँध लो
मुझसे पार न पाओगे
कहीं भूल से खोल दिया मुंह
औंधे मुंह गिर जाओगे
हाथी कितना ही बूढा हो
भैंस बराबर रहता है
ऐसा मैंने नही कहा है
जग सारा ये कहता है
'शिशु' कहें लेकिन तुम यारों
अपने दिल की तुम सुनना
धनीराम कुछ भी कहता हो
सत्य मार्ग ही चुनना
सही कहा भाई आपने, अच्छी रचना लिखी है। आपके बारे में जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteमैने भी अभी-अभी ब्लॉग लिखना शुरु किया है। देखिएगा जरुर, आपकी राय का इंतजार रहेगा।
बहुत अच्छा लिखा है आपने आपके बारे में जानकर अच्छा लगा। मैने भी अभी ब्लॉग लिखना शुरु किया है उम्मीद है आप जरूर देखेंगे और साथ ही आपकी राय का भी इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteनमस्कार
बहुत अच्छा लिखा है आपने आपके बारे में जानकर अच्छा लगा। मैने भी अभी ब्लॉग लिखना शुरु किया है उम्मीद है आप जरूर देखेंगे और साथ ही आपकी राय का भी इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteनमस्कार
बहुत अच्छा लिखा है आपने आपके बारे में जानकर अच्छा लगा। मैने भी अभी ब्लॉग लिखना शुरु किया है उम्मीद है आप जरूर देखेंगे और साथ ही आपकी राय का भी इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteनमस्कार
बहुत बढ़िया रचना है
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मानव मस्तिष्क पढ़ना संभव