Monday, October 20, 2008

झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों का दर्द

झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग चाहें जिस भी शहर और प्रांत से आते हों उन्हें बिहारी मान लिया जाता है। बिहारियों को यह बात भले नागवार लगती ही है लेकिन जो बिहारी नहीं हैं उनका क्या? बात यह कि झुग्गियों में गरीब एक जगह जुटते हैं फिर वह किसी भी प्रांत से आये हुई हों। यह शहरी गरीब किसी न किसी गांवो की उपज हैं। लेकिन शहरों में जिस प्रकार से इस तबके को एक हीन भावना से देखा जाता है उससे कहीं न कहीं हर आने वाला व्यक्ति न चाहते हुए भी अपनी पहचान को झुपाने के लिए मजबूर हो जाता है और अपने मूल स्थान की जगह अपने को उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा या साउथ का हूँ ऐसा कहते हैं। लेकिन साउथ वाले तो अपने राज्य तक का नाम नहीं बताते। उन्हें तो पता है कि क्या फर्क पड़ता है तमिलनाडु बतायें तब भी साउथ के और आंध्र प्रदेश बताये तब भी रहेंगे। शहर में रहने वाले इन गरीबों को गरीब न कहकर शहरी गरीब कहा जाता है। तो अब आगे से इन्हें गरीब न कहकर शहरी गरीब ही कहेंगे।

ज्यादातर शहरी गरीबों के पास न वोटर कार्ड है और न राशन कार्ड। वे दिल्ली के कानूनी शहर में नहीं आते। इन शहरी गरीबों की संख्या कितनी है यह अनुमान लगा पाना कठिन है। आंकड़ों का क्या, वो तो भारतीय राजनीति की तरह बदलते रहते हैं। फिर भी सरकारी फाइलों में दो तरह के स्लम दर्ज हैं। स्वयंसेवी संस्थायों (NGO) की भाषा में इन्हें लिस्टेड और अनलिस्टेट कहा जाता है। इन शहरी गरीबों की संख्या वर्तमान दिल्ली की 18 मिलियन जनसंख्या के आधी है। (source : as per Economic survey, Government of the National capital Territory of Delhi, 2007-08)

ऐसा माना जाता है कि ज्यादातर शहरी गरीब मजदूरी करते हैं। मजदूरी भी दो तरह की करते हैं-रोजनदारी पर काम करने वालों को दिहाड़ी मजदूर कहते हैं और जो कम वेतन पर काम करते हैं उन्हें केवल मजदूर कहा जाता है। दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर गारा-ईंट, मिस्त्री, भिस्ती, पुताई-रंगाई, ट्रकों से सामान उतारने से लेकर रिक्शा खींचने तक का काम करते हैं। और मजदूर कहे जाने वाले लोग फैक्ट्रियों, में सिलाई, ऑफिसों में झाड़ू पोंछे आदि का काम करते हैं।

कुछ शहरी गरीब, गरीबों की जिंदगी के सामान बेचते हैं। जिसमें हरी सब्जी-फल से लेकर मिट्टी-प्लास्टिक के बरतन, कपड़े नये-पुराने, चाट-पकौड़े, मसाले आदि। चूंकि यहाँ सब कुछ थोड़ा सस्ता मिलता है इसलिए मध्यवर्गीय कोलोनियों में रहने वाली औरतें भी हरी-हरी सब्जी खरीदने का मोह नहीं छोड़ती। वे भी अपनी पड़ोसन से नजरें बचाती हुई कुछ साग-सब्जी ले ही लेती हैं।


जब से दिल्ली सरकार ने इन झोपड़ियों को हटाने का काम शुरू किया है तबसे ऐसा लगता है इनकी संख्या अचानक बढ़ गयी है। क्योंकि अब झुग्गियों में वो अपने सगे-संबधी के घर में पनाह लिए हुए हैं। आखिर कहां जाते मजदूर बेचारे। जाते तो कहां रहते? उनके बच्चे कहां पढ़ते? अपनों से कट कर वे जिंदगी से कैसे जुड़ते? ज्यादातर यहीं कॉलोनी-कॉलोनी घूम कर दाल रोटी के अवसर खंगालते रहे। अचानक कॉलानी में ग्रूप बनाकर घूमने वाली और घर का काम में हाथ बंटाने वाली, चौका बत्र्तन करने वाली, झाड़ू पोंछा करने वाली औरतों की बाढ़ सी आ गई है वे घर-घर जाकर काम के अवसर तलाशने लगीं। कई दफा उनकी आपस में झड़पे भी हो जाती।

दिल्ली के शहरी अमीर कह रहे हैं कि आजकल घरों में काम करने वालों के दाम बहुत बढ़ गये हैं। जबकि उनको यह कहते हुए स्वयं सुना जाता है कि आजकल मंहगाई बढ़ गयी है। तो सवाल यह उठता है कि मंहगाई क्या उन शहरी अमीरों के लिए बढ़ी है। क्या शहरी गरीब इससे अछूते हैं। सवाल का इंतजार है?

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